जितेन्द्र चतुर्वेदी। अहमद पटेल नहीं रहे। सुबह जब यह खबर आई तो लोग चौंक गए। यकीन करना मुश्किल हो रहा था। कोरोना ही तो था उनको। लोग ठीक भी हो रहे हैं। उम्र भी 71 ही थी। मगर जब वहां से बुलावा आ जाता है तो बस बहाना काफी होता है। सो वे अनंत सफर पर निकल पड़े। पर उनका जाना कांग्रेस को खल गया, यह कहना अहमद पटेल के कद को कमतर करके आंकना होगा।
वह इसलिए क्योंकि उनके जाने से बस कांग्रेस को नुकसान नहीं हुआ है बल्कि भारतीय राजनीति को भी क्षति पहुंची है। शून्य तो बन ही गया है। उनके जैसे नेता भी कम ही बचे हैं। असल में वे हिन्दुस्तानी राजनीतिक परंपरा के मजबूत स्तंभ थे। तभी मजबूती से खड़े थे। उनको डिगाने की कोशिश रसूखदार सरकारी लोगों ने खूब की। एड़ी से चोटी तक जोर लगाया गया। धन, बल और सत्ता सब झोंक दी गई। खबरें भी खिलाफ में लिखी गई। पर राजनीति के इस माहिर खिलाड़ी को कोई डिगा नहीं पाया। वे राज्यसभा पहुंचे। उनका यही हुनर उन्हें संकटमोचक बनाता है।
जब भी कांग्रेस संकट में आई, सोनिया गांधी ने उनकी ओर देखा। उन्होंने, उसका हल भी निकाला। इसी गुर ने उन्हें कांग्रेस का दूसरा सबसे ताकतवर इंसान बना दिया था। सोनिया गांधी, उन पर आंख बंद करके भरोसा करती थी। इसी वजह से हर कांग्रेसी अहमद पटेल से बनाकर रखता था। उनसे बैर करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। कहा तो यह भी जाता था कि जब सोनिया गांधी किसी निर्णय को सोचकर लेने की बात करती थी तो मान दिया जाता था कि अहमद पटेल से सलाह लेगी। इसी कारण कांग्रेस में उनका अलग रूतबा था।
लेकिन कभी उनमें कोई गुमान नहीं था। सबके लिए सहज उपलब्ध रहते थे। उनका रहन-सहन भी आडंबरों से कोसो दूर था। सादगी उनका स्वभाव था। हवाई जहाज के बजाए ट्रेन का सफर उन्हें बहुत भाता था। गाना सुनना उनकी आदत में शुमार में था। टेलीविजन देखना उन्हें पसंद नहीं था।
खबरों के लिए वे अखबार पर निर्भर रहते थे। हां, ये अलग बात है कि वे खबर बनाते भी थे। ओहदा जो उनके पास था। इसी कारण उनके अपने निजी संबंध हर तबके में थे। खबर उनके पास आ ही जाया करती थी। अरूण जेटली भी उनकी इस प्रतिभा के कायल थे। उनके नेटवर्क ने तो एक बार जेटली को भी चौंका दिया था। हुआ यह कि राबर्ट बाड्रा के जमीन वाले मामले की खबर अरूण जेटली को लगी। वे इसे सदन में उठाना चाहते थे।
मगर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उसके लिए तैयार नहीं था। उसकी अपनी वजह थी। एक तो यही कि भाजपा में भी दमाम थे और है। दूसरा, वह राजनीति का अलग दौर था। राजनेता भी अलग किस्म के थे। राजनीति में परिवार और निजी संबंध लाने के पक्षधर नहीं थे। इस कारण अरूण जेटली को परहेज करने की सलाह दी गई। वे बातचीत करके निकले ही थे कि सदन के गलियारे में उन्हें अहमद भाई मिल गए। उन्होने अरूण जेटली से कहा कि आपको वाड्रा वाला मामला नहीं उठाना चाहिए।
यह सुनकर अरूण जेटली चौंके। जो स्वभाविक भी था। वह जो बात शीर्ष नेतृत्व से करके आए थे, उसकी भनक अहमद पटेल को कैसे लग गई? यही उनका रसूख भी था। हर दल की खबर रखते थे। सभी दलों में उनके निजी संपर्क भी थे। इसलिए राजनीतिक गुणा भाग उनके कठिन नहीं होता था। वे राजनीति में परिवार से आए। उनके पिता कांग्रेस में सक्रिय थे।
लेकिन जो मुकाम उन्होंने बनाया, वह खुद प्रतिभा से। इस मामले में उनका कोई सानी नहीं है। इंदिरा गांधी से लेकर राहुल गांधी तक खुद को प्रासंगिक बनाए रखना सहज नहीं है। गांधी परिवार से इस तरह की नजदीकी शायद ही किसी कांग्रेसी नेता की हो। वे सबके खास रहे। हां, राहुल गांधी के उदय ने उनके भविष्य को सवाल जरूर पैदा किए। कहा जाने लगा कि अब उनके दिन लद गए हैं। पर 2017 के यूपी चुनाव में कांग्रेस की युवा बिग्रेड भी उनकी मुरीद हो गई। सपा-कांग्रेस का गठबंधन उनकी ही पहल का नतीजा था। हालांकि परिणाम अनुकूल नहीं आया।
पर जो मेल लोहियाईट मुलायलम के असंभव था उसमें सुराग तो अहमद पटेल ने कर ही दिया था। राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा, इसी कारण उनके मुरीद बन गए। उनको कोषाध्यक्ष बनाया गया। यह उनके राजनीतिक कौशल का ही कमाल था। इसे कुछ लोग कारपोरेट घरानों में उनके संबंध से भी जोड़कर देख सकते हैं। तो उसमें कोई हर्ज भी नहीं है। पार्टी के लिए फंड चाहिए। जो उसकी व्यवस्था कर सकता है और आलाकमान का विश्वस्त होता है, जिम्मा उसी को दिया जाता है। इस मामले में भी अहमद पटेल बेजोड़ थे। लिहाज फंड का लेखाजोखा उनको सौंप दिया गया। इसे भी वे बखूबी निभाते, पर कमबख्त सांस ही कम पड़ गई।