सतीश चन्द्र मिश्र ब्राह्मणों के सिरमौर है। वे बहन मायावती के विश्वस्त सहयोगी और दलित- ब्राह्मण एकता के अगुवा है। राजनीति उनका पेशा नहीं जनसेवा का जरिया है। वे राजनीति में आए भी इसी के लिए। पेश से वे वकील है। इसने उन्हें मान-सम्मान दिया। दौलत और शोहरत भी दिया। पर एक बात जो उन्हें हमेशा परेशान करती रही, वह अपने समाज की दुर्दशा थी। वे ब्राह्मणों और दलितों की दशा से व्यथित थे। उनके लिए कुछ करना चाहते थे। वह राजनीति में आए, बिना संभव नहीं था। उनके लिए यह बहुत कठिन काम भी नहीं था। बतौर वकील उनका नाम तो था ही। हर दल के लोग उनसे परिचित थे। उनकी भी सभी दलों में अपनी जान- पहचान थी ही। लेकिन यह काफी नहीं था, किसी दल से जुड़ने के लिए। जुड़ने का मतलब यह होता है कि आपकी वैचारिकी से उस दल की विचारधारा मेल खाती हो। तभी जुड़ने का कोई मतलब होता है।
कम से कम सतीश चंद्र मिश्रा के बारे में तो यही था। राजनीति में वे पैसा कमाने लिए नहीं जाना चाहते थे। वकील रहते हुए, उन्होंने धन खूब कमाया। शोहरत भी थी है। जो नहीं था, वह था संतोष। वह इसलिए नहीं था क्योंकि गरीब-गुरवा की वे मदद नहीं कर पा रहे थे। जितना उनके बस में था, उतना वे कर रहे थे। मसलन गरीब किसान, विधावा या फिर न्याय पाने में अक्षम लोगों की वे मदद कर रहे थे। उनको मुफ्त कानून सहायता मुहैया कराने में लगे रहे। मगर ऐसे बहुत से लोग थे जो पैसे के अभाव में न्याय को तरसते थे।
समाज का एक बड़ा तबका न्याय से महरूम था ही और है भी। वह तबका सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के लिए मौजूद दौर में भी तरस रहा है। लेकिन दो दशक पहले हालात बद से बदतर थे। तब तो समाज के एक तबके के पास न्याय मांगने की हिम्मत तक नहीं होती थी। उस दौर में सतीश चंद्र मिश्र, शोषित और पीड़ित तबके की आवाज बने। उनके लिए लड़े। कोर्ट के जरिए उनको न्याय दिलाने का काम किया। लेकिन वह काफी नहीं था। वह इसलिए क्योंकि जो न्याय कमोजर वर्ग को चाहिए था, उसके दिए नीतियों परिवर्तन जरूरी था। वह सरकार में रहकर ही किया जा सकता था। इस बात को सतीश चंद्र मिश्र समझ गए थे। वे स्पष्ट थे कि बिना राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा बने, वे कमजोर लोगों को न्याय नहीं दिला सकते।
समाज में जो कमजोर वर्ग के लिए संघर्ष चल रहा था, उसके अगुवा कांशीराम थे। बहन मायावती उस आंदोलन की आत्मा है। उनका हर सांस कमजोर वर्ग को समर्पित है। वे समाज के शोषित समुदाय की मसीहा है और उनके उत्थान में दशकों लगी है। उनका राजनीतिक ध्येय ही कमजोर वर्ग का उत्थान है। तो जाहिर है बसपा का भी वही लक्ष्य है। सतीश चंद्र मिश्र का भी वही राजनीतिक दर्शन रहा। लिहाजा वे बसपा से जुड़ गए। इससे बसपा की राजनीतिक धार और आधार दोनों में इजाफा हुआ। राजनीतिक रूप सियासी समीकरण मजबूत हुआ। दलित समाज तो पहले से ही बसपा के साथ खड़ा था। सतीश चंद्र मिश्र ने ब्राह्मण समाज को भी उससे जोड़ दिया। उनके ही पराक्रम की वजह से 2007 में चमत्कार हुआ था। चमत्कार इसलिए क्योंकि किसी राजनीतिक पंडित ने पूर्ण बहुमत वाली सरकार की कल्पना नहीं की थी। वह जो अकल्पनीय था उसे सतीश चंद्र मिश्र ने अपनी राजनीतिक चतुराई से सही साबित कर दिया। यही उनका हुनर भी है। राजनीति में वे इसके लिए ही जाने जाते है। एक बार फिर उनसे 2007 का इतिहास दोहराने की अपेक्षा पार्टी कर रही है। वे उस मिशन में लगे हैं।
हालांकि एक और मिशन है जिसमें वे लगे हैं, वह विकलांगों की सेवा है। इसके बारे में बहुत कम लोगों को पता होगा। लेकिन राजनीति से अलग यह भी उनके जीवन का एक पक्ष है। इससे यह पता चलता है कि कमजोर व्यक्ति के लिए उनके दिल में सहज ही करूणा पैदा हो जाती है। उसी करूणा की वजह से वे विकलांगों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान में जुटे। उनमें भी विशेष रूप जिनके आंखे की रोशनी ईश्वर ने छीन ली है, उनके सेवा में लगे हैं। डा. शकुंतला मिश्रा पुनर्वास विश्वविद्यालय, उसी सेवा भाव का मूर्त रूप है।
लेख – जितेंद्र चतुर्वेदी ( वरिष्ठ पत्रकार)