उदारीकरण के 30 साल -24 जुलाई 1991 देश के इतिहास का महत्वपूर्ण दिन

4 जुलाई 1991 देश के इतिहास में अंकित एक और महत्वपूर्ण दिन या यूं कहें कि भारत की आर्थिक आजादी का दिन। क्योंकि इस दिन संसद में पेश किया आम-बजट कोई आम बजट नहीं था, बल्कि बहुत ख़ास बजट था। जिसे तब की कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने पेश किया था, जिसने भारतीय बाजार के दरवाजे दुनिया के लिए खोल दिए। इसे हम उदारीकरण की नीति के नाम से जानते हैं।

क्या है उदारीकरण की नीति

1947 में स्वतंत्रता के बाद से ही भारत की बंद अर्थव्यवस्था में सरकार ही सब कुछ तय करती थी, वस्तु के उत्पादन से लेकर कीमत तक। इसे लाइसेंस परमिट राज कहा जाता था। इसके विपरीत खुली अर्थव्यवस्था में निजी कंपनियों को बाजार की जरूरत के अनुसार खुले अवसर देने का फैसला किया गया।

बजट के खास बिंदु

घरेलू बाजार को निजी कंपनियों के लिए खोला गया सरकार का हस्तक्षेप कम किया जाना तय हुआ।

लाइसेंस परमिट राज खत्म, कंपनियों को प्रतिबंधों से मुक्ति दी गई।

देश की आयात-निर्यात नीति में बदलाव करके, आयात में ढील और निर्यात को बढ़ावा दिया गया।

रोजगार के ज्यादा अवसर पाने के लिए विदेशी निवेश के रास्ते खोले गए।

कुल मिलाकर उस बजट में सरकार ने व्यापार के कई रास्ते उदार होकर खोल दिए इसलिए इसे उदारीकरण का नाम दिया गया।

क्यों पड़ी उदारीकरण की नीति की ज़रूरत

हमारे देश को आजादी के बाद से ही आर्थिक कठिनाइयों ने घेर लिया था क्योंकि अंग्रेज इसे पूरी तरह खोखला करके जा रहे थे। देश स्वावलंबी बनने की राह पर था, लेकिन रफ्तार बहुत धीमी थी। 80 के दशक तक समस्या धीरे-धीरे बढ़ती रही, परंतु 1990 तक इसने विकराल रूप ले लिया। फलस्वरुप धीरे-धीरे हमारी अर्थव्यवस्था डूबने की कगार पर आ चुकी थी। देश गंभीर आर्थिक संकट की ओर बढ़ रहा था।

दूसरी ओर 80 के दशक का दौर राजनीतिक उठापटक भरा भी रहा जिसमें इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अल्प समय में ही 3 प्रधानमंत्रियों के हाथ देश की कमान (राजीव गांधी, वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर) ने देश की आर्थिक स्थिति को रसातल में पहुंचा दिया। परिणाम यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आईएमएफ से लोन लेने की जरूरत आन पड़ी उस समय देश का एक समय ऐसा भी आया जब देश का विदेशी मुद्रा भंडार घटकर सिर्फ 2 अरब डॉलर रह गया था। इसका मतलब देश के पास सिर्फ 2 हफ्तों के आयात की क्षमता बची थी।

ऐसे गंभीर आर्थिक संकट के दौर में 21 जून 1991 को पी.वी. नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने पिछली सरकार में आर्थिक सलाहकार रहे मनमोहन सिंह को अपना वित्त मंत्री नियुक्त किया। तब तक मनमोहन सिंह, देश की आर्थिक स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ हो चुके थे। उन्हें संकट की गंभीरता का पूरा अंदाजा था, इसलिए उन्होंने देश की तत्कालीन स्थिति को संभालने के लिए ही उदारीकरण की नीति को अपनाया।

24 जुलाई 1991 को दिए अपने पहले ही बजट भाषण में इसकी घोषणा की। इसके बाद देश की दशा और दिशा का बदलना प्रारंभ हो गया। देश आर्थिक तरक्की की राह पर तेजी से अग्रसर हुआ। धीरे-धीरे हमारा विदेशी मुद्रा भंडार भी भरने लगा। देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कदम रखा। रोजगार के अवसर बढ़ने लगे। लोगों के हाथ में पैसा आया जिससे बाजार में मांग बढ़ी, उत्पादन बढ़ा और देश की आर्थिक समृद्धि का मार्ग प्रशस्त हुआ।

उदारीकरण का दूसरा पहलू

24 जुलाई 1991 को पेश बजट भाषण से जहां एक ओर देश को आर्थिक आजादी मिली। देश में विदेशी निवेश आना शुरू हुआ। देश ने तरक्की की रफ्तार पकड़ी, वही कुछ सालों बाद इसका दूसरा पहलू भी साफ नजर आने लगा उदारीकरण की नीति ने उस समय तो आपदा में अवसर को तलाशा किंतु समय के साथ बाजार पर बड़े व्यापारियों का राज बढ़ता चला गया और सरकार बस नियम कानून बनाने तक सिमटती चली गई। सरकारों ने उद्योगपतियों के लिए पलक पावड़े बिछा दिये, जो कि बदस्तूर आज भी जारी है। नतीजा यह होने लगा कि 21वीं सदी के आते-आते अमीर-गरीब के बीच की खाई बढ़ने लगी। अमीर, बेतहाशा धनवान बनते चले गए और गरीब, बेहाल होते गए।

यह आज भी एक विचार का बिंदु बना हुआ है कि क्या कारण है कि उदारीकरण से पहले देश की कुल घरेलू सकल उत्पाद (जी.डी.पी.) कम थी, फिर भी देश में आर्थिक असमानता ज़्यादा नहीं थी। लेकिन उदारीकरण के बाद देश में पैसा तो बहुत आया, जी.डी.पी. भी बढ़ी परंतु पैसा चंद लोगों की मुट्ठी में ही दब कर रह गया और देश के आम इंसान को इसका उतना फायदा नहीं हुआ जितना होना चाहिए था। देश के आम नागरिक मौजूदा सरकार से यही उम्मीद कर सकते हैं, कि देश के विकास का लाभ भी सभी वर्गों को भरपूर मात्रा में मिले ताकि जब उदारीकरण के 30 वर्ष पूरे हो रहे हैं तो देश के प्रत्येक व्यक्ति को इसका सीधा लाभ मिल सके।

एजेंद्र कुमार, कंसलटेंट लोकसभा टीवी

News Reporter
error: Content is protected !!