महायोगी गोरखनाथ कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों द्वारा “आय दोगुनी करने हेतु केले की फसल के साथ सब्जियों की सहफसली खेती” पर दिया गया प्रशिक्षण
आज दिनांक 25 जून, 2021 दिन शुक्रवार को महायोगी गोरखनाथ कृषि विज्ञान केंद्र, चौकमाफी, गोरखपुर के उद्यान वैज्ञानिक डॉ. अजीत कुमार श्रीवास्तव एवं मृदा वैज्ञानिक डॉ. संदीप प्रकाश उपाध्याय ने “आय दोगुनी करने हेतु केले की फसल के साथ सब्जियों की सहफसली खेती” विषय पर ग्राम लोहारपुरवा, ब्लॉक कैंपियरगंज, गोरखपुर में वाह्य परिसर कृषक प्रशिक्षण दिया। उद्यान वैज्ञानिक डॉ. अजीत कुमार श्रीवास्तव जी ने बताया कि केला एक महत्वपूर्ण फल फसल है जिसका फल वाली फसलों में उत्पादन के दृष्टिकोण से प्रथम स्थान तथा क्षेत्रफल की दृष्टि से द्वितीय स्थान है ।
देश में फलों के कुल क्षेत्रफल का 20% केवल केला द्वारा आच्छादित है। उत्तर प्रदेश के तराई जनपदों मुख्यतः गोरखपुर, बस्ती, संत कबीर नगर, महाराजगंज, देवरिया, कुशीनगर इत्यादि केला की खेती के लिए उपयुक्त हैं । केले के साथ सब्जियों से फसली खेती करने पर यह और मुनाफा वाली कृषि प्रणाली सिद्ध होती है जैसे कि केले के साथ अगेती गोभी की फसल लेने पर यह अतिरिक्त आय प्रदान करती है तथा किसानों की आय दोगुनी करने की तकनीक साबित होती है। केला गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों जहां तापमान 10 से 40 डिग्री सेल्सियस रहता है अच्छा पनपता है वहीं ठंडी जलवायु क्षेत्रों में केला की फसल अवधि बढ़ जाती है, साथ ही घार एवं गुच्छे छोटे हो जाते हैं ।
इसी प्रकार तापक्रम 40 डिग्री से अधिक होने पर पत्तियां जलने लगती हैं, अधिक तेज गर्म हवा आंधी केला की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। केला का अधिक सघन रोपण करने से पौधों में सूर्य प्रकाश हेतु प्रतियोगिता होती है तथा पौध वृद्धि एवं उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । सही दूरी पर केला रोपण करने से पौधे को संतुलित मात्रा में हवा, पानी एवं पोषक तत्व मिलता है । केला की प्रजाति के अनुसार प्रॉपर दूरी एवं पौधों की संख्या तय की जानी चाहिए जैसे कि हरी छाल के लिए 1.5 * 1.5 मीटर रोपण दूरी रखते हुए 4444 पौधों की संख्या प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए। बसराई हरी छाल के लिए 1.8 * 1.8 मीटर दूरी रखते हुए 3086 पौधों की संख्या प्रति हेक्टेयर रखी जानी चाहिए। टिशु कल्चर तकनीक की गोरखपुर जनपद के लिए प्रमुख प्रजाति ग्रांड नैन (जी 9) प्रजाति के लिए 2.1 * 2.1 मीटर प्रॉपर दूरी रखते हुए 3968 पौधों की संख्या प्रति हेक्टेयर रखी जानी चाहिए।
मृदा वैज्ञानिक डॉ. संदीप प्रकाश उपाध्याय ने केला की फसल के लिए भूमि के प्रकार के बारे में बताते हुए अवगत कराया कि हर प्रकार की भूमि जिसकी जल धारण क्षमता अच्छी व जल निकास का उत्तम प्रबंध हो वह उपयुक्त होती है, कम उपजाऊ मृदा जिसमें वायु संचार कम तथा जलभराव होता हो केले के लिए अनुपयुक्त है। जीवांश युक्त दोमट या मटिया दोमट भूमि जिसमें जल निकास की अच्छी व्यवस्था हो केले के उत्पादन के लिए उत्तम होती है। भूमि में 1 मीटर तक कड़ी अथवा पथरी सतह नहीं होनीचाहिए । भूमि का पीएच मान 6.0 से 7.5 तक इसकी खेती के लिए उपयुक्त होता है। रोपण के लिए भूमि तैयार करने हेतु चार से पांच बार जुताई करके समतल बना लेते हैं तथा संस्तुत दूरी पर गड्ढा खोद लेना चाहिए एवं मिट्टी व गोबर की सड़ी खाद के मिश्रण से भर देना चाहिए । प्रति गढ्ढा 4 से 5 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद की आवश्यकता होती है, इसके साथ ही प्रति गढ्ढा 200 ग्राम नीम की खली डाल देना चाहिए । उत्तर प्रदेश में यह समस्त कार्य 10 जून तक हो जाना चाहिए। केले में उर्वरक का प्रयोग गढ्ढा बनाकर भूमि की 2, 3 इंच नीचे बिना जड़ों को क्षति पहुंचाए करना चाहिए तथा उर्वरक की प्रथम व द्वितीय मात्रा पौधे से 15 से 20 सेंटीमीटर की दूरी पर प्रयोग करना चाहिए । रोपण के 30 दिन बाद 62 ग्राम यूरिया, 125 ग्राम सुपर फास्फेट तथा 105 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश प्रति पौधा दिया जाना चाहिए। इसी प्रकार म्यूरेट ऑफ पोटाश को छोड़कर 75 दिन तथा 125 दिन बाद यूरिया तथा सुपर फास्फेट की वही मात्रा दी जानी चाहिए। रोपण के 165 दिन बाद म्यूरेट ऑफ पोटाश के साथ यूरिया एवं सुपर फास्फेट की वहीं मात्रा फिर उपयोग की जानी चाहिए, तत्पश्चात 210 दिन रोपड़ के, 255 दिन तथा रोपड़ के 300 दिन बाद 62 किलोग्राम यूरिया तथा 105 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाश की मात्रा दी जानी चाहिए।
कृषक प्रशिक्षण कार्यक्रम में सीताराम चौरसिया तथा कतवारू मौर्य सहित 2 दर्जन से अधिक किसान उपस्थित थे।