आकाश रंजन: अमेजन प्राइम पर शूजीत सरकार की फिल्म सरदार उधम बीते हफ्ते रिलीज़ हो चुकी है। सरदार उधम भारत में इससे पहले की बनी देशभक्ति और क्रांतिकारियों की जिंदगी पर बनी फिल्मो से बेहद अलग है। इसमें ज़बरदस्ती देशभक्ति का चूरन नहीं है। इसमें ज़बरदस्ती बेमतलब देशभक्ति का कोई भाषण नहीं है। आज के दौर की अमूमन ज़ोर से चीख कर बोले गए डायलॉग्स नहीं है। इसमें देशभक्ति के कोई गाने नहीं है। देशभक्ति क्या इस 162 मिनट्स की फिल्म में एक भी गाने नहीं है। इन सभी चीज़ों के बावजूद ये फिल्म आपको अंदर तक हिला के रख देगी। इस जौनर की फिल्म में भारत की सबसे उम्दा फिल्मो में इसे गिना जएगा।
सरदार उधम हमारा परिचय अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंघार से कराती है। जलियांवाला बाग में लगभग 20 हज़ार लोगो पर गोलियां चलाने का आदेश देने वाले पंजाब के गवर्नर रहे जनरल माइकल ओ डायर से बदला लेने की कहानी है। इस घटना से लगभग सभी लोग वाकिफ होंगे की उधम सिंह ने लंदन जाके जनरल माइकल ओ डायर को भरी सभा में पॉइंट ब्लैंक से मौत के घाट उतार दिया था। लेकिन इसके पीछे की कहानी शयदा ही किसी को पता होगी। वजह पब्लिक डोमेन में ज़्यादा जानकारिया का ना होना के साथ बाकी के क्रांतिकारों जितना तवजूव न देना भी है। सरदार उधम भगत सिंह को अपना गुरु मानते थे। फिल्म में भगत सिंह भी स्पेशल अपीयरेंस में नज़र आते है। स्क्रीन पर भगत सिंह को बेहद अलग अवतार में दिखाया गया है। ऐसा अवतार जीससे आपको प्यार हो जएगा।
डायरेक्टर शूजीत सरकार की यह ड्रीम प्रोजेक्ट थी। विक्की कौशल से पहले इस फिल्म के लिए दिवंगत स्टार इरफ़ान खान को कास्ट किया गया था। लेकिन फिल्म देखने के बाद बहुत हद तक विक्की ने इरफ़ान की कमी को महसूस नहीं होने दिया है। लगभग दो घंटे चालीस मिनिट की इस लंबी फिल्म में आप वो सिनेमा देखते हो जो हिंदी सिनेमा में न के बराबर दिखया गया है। अमृतसर के खेतो और गलियों से लेकर लंदन तक का सफर बेहद संजीदगी से दर्शया गया है। पूरे फिल्म की सिनेमोटोग्राफी आपके दिल दिमाग में जैसे बस जाती है। विक्की कौशल और शूजीत सरकार आपके दिमाग को सुन्न कर देंगे। और आपको सरदार उधम के साथ उस दौर पे ले जायेंगे जहा से सरदार उधम एक क्रांतिकारी बनते है। जिस वर्ष सरदार उधम को जेल से रिहा किया गया था उसी वर्ष भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को अंग्रेजों ने फांसी दी थी। जलियांवाला बाग हत्याकांड के पहले से ही बढ़े हुए गुस्से के साथ अब उधम के पास जाने के लिए कहीं नहीं बचा था। इसलिए उन्होंने ने इंग्लैंड जाने का फैसला किया जहां उन्होंने ने माइकल ओ डायर से बदलन लेने का काम शुरू किया।
शहीद भगत सिंह की तरह हम यहां एक ऐसे व्यक्ति की कहानी को देखते है, जिसे आजादी की लड़ाई के लिए ब्रिटिश सरकार ने फांसी दी थी। उधम सिंह और भगत सिंह दोनों एक ही तरह से मृत्यु का स्वागत करते थे। डायर को मारने से पहले उधम सिंह 21 साल तक क्या कर रहे थे कहा थे और ट्रिगर खींचने में उन्हें इतना समय क्यों लगा इन सभी बातों को एकदम नजदीक से इस फिल्म में दर्शाया गया है। यहाँ एक महत्वपूर्ण सवाल उठाता है कि उधम सिंह ने स्वतंत्रता-संग्राम की कहानियों में जगह क्यों नहीं बनाई जो हमने भगत सिंह के रूप में सुनी/बताई है? एक देश के रूप में हमें ब्रिटेन से उनके पार्थिव शरीर को 1974 में प्राप्त किया। उन्हें 1940 में फांसी दी गयी थी।
विक्की ने बिना चीखे चिल्लाये फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाया है। उधम सिंह के किरदार में वो इस तरह फिट हुये हैं कि फिल्म खत्म होते होते विक्की ही उधम सिंह के रूप में याद रह जाते हैं। ऐसा नहीं है कि अमृतसर के जलियांवाला बाग पर बानी यह पहली फिल्म है। इससे पहले भी जलियांवाला बाग पर फिल्में बनी हैं मगर इस फिल्म में इस नरसंघार को इतने बारीकी से किसी ने नहीं दिखाया है। फिल्म थोड़ी लम्बी होने के बावजूद क्लाइमेक्स देख के जैसे फिल्म ने अपनी आत्मा आपके सामने रख दी है। एक वक़्त के बाद आप सोचते है फॉरवर्ड करने की लेकिन क्लाइमेक्स इतना ज़बरदस्त है की आप चाह कर भी फॉवर्ड नहीं कर पाते। क्लाइमेक्स तकरीबन पंद्रह मिनिट लंबा है। निहत्थों पर अंग्रेजी सेना की गोलियां, बदहवासी, चीख पुकार मौत और उसके बाद उधम सिंह का घायलों को अस्पताल पहुंचाना और वहां के हालात को ज़िंदा कर दर्शक के दिल दिमाग में सिहरन पैदा कर देते हैं। शवों को पहाड़ी पर चढाने से लेकर, इंसानों के टुकड़े-टुकड़े करने वाले डायर और उनकी टीम द्वारा की गई बर्बर गोलीबारी के बीच जिंदा रहने का संघर्ष और भट्टाचार्य का कैमरा अतीत के दर्द को आप तक पहुंचाती है। बाग की मिटटी में बहा बेशुमार खून यही कहानी की जान भी है।
क्या ख़ास है इस फिल्म में? सब कुछ जो एक परफेक्ट वॉर ड्रामा की फिल्म में होना चाहिए। क्या बुरा है इस फिल्म में? फिल्म का फर्स्ट हाफ थोड़ा खींचा हुआ है जो पूरे फिल्म को लम्बा बनता है लेकिन थोड़ा लम्बा बनना भी ज़रूरी है तभी फिल्म की क्लाइमेक्स आपके दिल दिमाग पर असर करता है। शांतनु मोइत्रा का बैकग्राउंड स्कोर दूसरे हाफ में चमकता है। लगभग सब कुछ कहा और किया गया है। शूजीत सरकार ने एक वीर कहानी को नायक के बारे में बताए बिना आपको न केवल एक त्रासदी के बारे में सूचित करता है बल्कि आपको एक ऐसा समापन भी देता है जो न तो काला है और न ही सफेद है।