शायर मोहम्मद इकबाल को महिमामंडित करने का रिवाज काफी अर्से से चलाया जा रहा है। ज्ञान दिया जाता है कि उन्होंने “सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा” जैसा अमर तराना लिखा। हर रामनवमी के मौके पर यह भी बताने की कोशिश की जाती है कि उन्होंने राम पर भी तो एक लंबी कविता लिखी थी। उन्होंने राम को इमाम ए हिन्द भी कहा था ।ये सब बातें अपनी जगह सही हैं। इन कविताओं के लिए उनका सम्मान होना भी चाहिए। पर यह नहीं बताया जाता कि “सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान…” लिखने वाला युवा शायर आगे चलकर कुसंगति में बदल जाता है । उनकी यह कविता साप्ताहिक ‘इत्तिहाद’ के 16 अगस्त, 1904 के अंक में छपी थी। इसे उन्होंने बच्चों के लिए लिखा था। अगले ही साल इकबाल ने इस कविता को लाहौर के एक कॉलेज में सुनाया भी था। इस कविता का छठा दोहा – ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तान हमारा’को तराना ए हिन्द भी कहा जाने लगा। निश्चित रूप से यह कविता किसी भी शख्स में राष्ट्र प्रेम और देश के प्रति प्रेम की भावना का संचार करने के लिए पर्याप्त है। इस कविता में शायर इकबाल बहुलतावादी भारत को देख रहे हैं।
लेकिन 1904 का इकबाल अगले ही साल यानी 1905 में लॉ की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड जाते है। वे वहां से दर्शन शास्त्र में शोध करने के लिए जर्मन भी चले जाते हैं। वे 1909 में भारत लौटते हैं। अब तक वे अप्रत्याशित रूप से बदल गए हैं। वे 1910 में तराना-ए-मिल्ली कविता लिखते हैं। इसमें राष्ट्रवाद के बजाय मुसलमानों को बतौर मुस्लिम होने पर गर्व करने की सीख दी जाती है। उन्होंने यह कविता अपनी ही रचना तराना-ए-हिन्दी के जवाब में लिखी है, जब उन्होंने अपने दृष्टिकोण को बदलकर दिव्-राष्ट्रवाद का सिद्धांत स्वीकार कर लिया। ये सचमुच में एक अविशवसनीय सी स्थिति है कि एक शायर का दिल और मिजाज चार साल के भीतर ही बदल गया।
उसी इकबाल को समझने के लिए 29 दिसंबर,1930 में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के सम्मेलन में दिए उनके अध्यक्षीय भाषण को समझना होगा। वे इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए इलाहाबाद (अब प्रयाग) जाते हैं। वे यहां मांग करते हैं कि पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, फ्रंटियर राज्यों का विलय कर दिया जाए। ये सभी राज्यउस वक्त मुस्लिम बहुल माने जाते थे। वे इनके लिए अतिरिक्त स्वायतता की मांग करते हैं। होना तो यह चाहिए था कि वे इन राज्यों के अल्पसंख्यकों के हितों के मसलों को उठाते। उन्हें अधिक अधिकार देने या दिलवाने की मांग करते। पर वे यह नहीं करते। क्योंकि इन सभी राज्यों में मुसलमानों की आबादी उस वक्त भी 70 फीसद से अधिक है। तो भी वे बहुसंख्यकों यानि मुस्लिम आबादी के पक्ष में बोल रहे हैं। मतलब वेमुस्लिम बहुल राज्यों में उन्हीं को अतिरिक्त शक्तियां देने की वकालत करते हैं। जरा देखिए कि इन सभी राज्यों को ही मिलाकर आगे चलकर पाकिस्तान बनता है। इसमें पूर्वी बंगाल और जुड़ जाता है। हालांकि वो पाकिस्तान के बनने के 25 सालों के बाद ही उससे उर्दू अपनाने के विरोध में अलग भी हो जाता है। तो इकबाल ने एक तरह से पाकिस्तान का ख्वाब 1930 में ही देखना चालू कर दिया था। या यूँ कहें कि चार साल की विदेश यात्रा में ही उनका अच्छी तरह ब्रेन-वाश अंग्रेजों द्वारा कर दिया गया था।
ये वही इकबाल हैं, जो जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार के विरोध में गोरी सरकार के खिलाफ एक शब्द भी न लिखते हैं न बोलते हैं । जब सारा देश उस जघन्य नरसंहार से सन्न था, तब इतना बड़ा कवि शांत था। वे उन मासूमों के चीखने की आवाजों पर कोई कविता तक नहीं लिख सके थे। उनकी कलम की स्याही सूख गई थी। हालांकि तब गुरुदेव रविन्द्रनाथ टेगौर उस घटना से इतने आहत हुए थे कि टैगोर ने ‘सर‘ की उपाधि वापस लौटा दी थी। उन्होंने यह उपाधि विश्व के सबसे बड़े नरसंहारों में से एक जलियांवाला कांड (1919) की घोर निंदा करते हुए लौटाई थी। उन्हें साल 1915 में ब्रिटिश प्रशासन की ओर से ‘नाइट हुड‘ की उपाधि दी गई थी।
पर अमृतसर के करीब ही रहने वाले इकबाल ने जलियांवाला नरसंहार के कुछ सालों के बाद ही 1922 में “सर” की उपाधि ले ली या उन्हें अंग्रेजों ने पुरस्कार स्वरुप दे दिया था।
इकबाल ही वो शख्स थे जिन्होंने तथाकथित ईशनिंदा के आरोप में मारे गए इंसान के हत्यारे के जनाजे में खुलेआम भाग लिया था। दरअसल लाहौर में इल्मुद्दीन नाम के एक इंसान ने 1923 में प्रताप प्रकाशन के मालिक राजपाल को मार डाला था। राजपाल ने 1923 में रंगीला रसूल नाम से एक किताब छापी थी। इसके छपते ही तब के पंजाब प्रांत में कठमुल्ला भड़क गए थे। उनका कहना था कि लेखक ने ईशनिंदा का दोषी है। वे लेखक की जान के प्यासे हो गए। लाहौर में उस लेखक के खिलाफ आंदोलन चालू हो गए। पर जब वो लेखक कहीं नहीं मिला तो इल्मुद्दीन ने प्रकाशक राजपाल को ही मार डाला। हत्यारे को गिरफ्तार कर लिया गया। पर वो उसी तरह से हीरो बन गया कठमुल्लों का, जैसे कुछ साल पहले उसी लाहौर शहर में सलमान तासीर को मारने वाला उनका सुरक्षा कर्मी हीरो बन गया था। पंजाब के गवर्नर तासीर को मुमताज कादरी ने इसलिए ही मार दिया था क्योंकि उन्होंने आसिया बीवी नाम की एक सीधी-सादी ईसाई महिला का ये कहते हुए साथ दिया था कि उस पर ईशनिंदा का केस चलाना गलत है।
इल्मुद्दीन पर जब केस चल रहा था उस वक्त इकबाल उसके पक्ष में माहौल बना रहे थे। यानी वो एक हत्यारे के साथ खड़े थे। कोर्ट ने उसे फांसी की सजा सुनाई थी। उसे फांसी के बाद दफनाने के लिए जब लोग कब्रिस्तान में लेकर जा रहे थे तब अल्लामा इकबाल भी थे। मोहम्मद अली जिन्ना भी उस हत्यारे के पक्ष में जिरह करने के लिए आए पर बात नहीं बनी। उसे अंततः 1929 में फांसी हुई। आगे बढ़ने से पहले यह भी बता दें राजपाल के पुत्र दीनानाथ मल्होत्रा का हाल ही में राजधानी में निधन हुआ है। वे लंबे समय तक हिन्द पॉकेट बुक्स चलाते रहे। वे देश के प्रख्यात हिन्दी प्रकाशक थे।
तो जरूरी है कि इकबाल की शख्सियत को समग्र रूप से देखने-समझने की। यह भी जानना होगा कि आखिर जिस शख्स के पुरखे कश्मीरी पंडित थे, वह सिर्फ इस्लाम और मुसलमानों के पक्ष में ही क्यों बोलने लगा। क्या धर्म बदलने से इंसान के पुरखे और उनकी परंपराएं भी मर जाती हैं?मजहब बदल जाने से वल्दियत भी बदल जाती है क्या ? अगर आप सिर्फ उन्हें “सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा” लिखने वाले शायर के रूप में ही देखेगें तो आप अपने साथ सही न्याय नहीं कर सकेंगे।
आर.के.सिन्हा (लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)