जितेन्द्र चतुर्वेदी ।ईमानदारी नकुल दुबे की पूंजी है। राजनीति में रहते हुए, उन्होंने यही कमाया है। उम्र ज्यादा नहीं है उनकी। कोई 55 साल के होगे। यह वही उम्र है जिसे राजनीति में युवा कहा जाता है। वे युवा है भी। मगर राजनीति के कुशल खिलाड़ी है। इसी वजह से वे पार्टी के मजबूत विश्वसनीय स्तम्भ है। संगठन उन पर आंख बंद करके भरोसा करता है। यह विश्वास उन्होंने अपने अथक परिश्रम से अर्जित किया है। कहा जाता है कि जब बसपा की सरकार थी तब उनके पास एक दो नहीं दर्जन भर विभाग थे। मगर फिर भी उनकी साख पर कोई आंच नहीं आई। वे काजल की कोठरी से बेदाग निकले।
यह साधारण बात नहीं है। वह इसलिए क्योंकि उपभोक्तावादी संस्कृति के जिस दौर में हम हैं, वहां पद लोगों को भ्रष्ट बना ही देता है। लेकिन नकुल दुबे ने निष्काम भाव से काम किया। वे एक संत की तरह संगठन का काम करते रहे। यही उनका स्वभाव है। हालांकि इसके बारे में लोगों को पिछले विधान सभा चुनाव में पता चला।
वह ऐसा दौर था जब बसपा में भगदड़ मची थी। बड़े-बड़े नेता हाथी छोड़कर कमल के साथ जा रहे थे। नकुल दुबे को भी तोड़ने की बहुत कोशिश की गई। तरह-तरह का प्रलोभन दिया गया। पर वे टसमस नहीं हुए। उन्होंने भाजपाई भगवा पहनने से मना कर दिया क्योंकि उन्हें न तो पद का मोह है और न पैसे लगाव।
अगर पैसे से ही लगाव होता तो वकालत नहीं छोड़ते। जब उन्होंने वकालत को अदविदा कहा तब वे लखनऊ उच्च न्यायलय के जाने माने वकील थे। मोटी फीस लेते थे। लेकिन उन्हें संतोष नहीं था। मन में समाज के दिए कुछ करने चाह अगड़ाई ले रही थी। इसलिए सार्वजनिक जीवन में निकलना चाहते थे। पर समस्या चुनाव की थी।
किसके साथ जुड़ कर काम किया जाए बड़ा सवाल था। वह इस वजह से क्योंकि नकुल दुबे का अपना मिजाज है। सभी का होता है। तो इसमें कोई चौंकने वाली बात है नहीं। हर व्यक्ति की तरह उनका भी नजरिया है। उसी हिसाब से वे सोच रहे थे। बसपा उनको अपने मन मुताबिक लगी। सो उसके साथ हो ले लिए। उस दौर में ब्राह्मण समाज को जोड़ने के लिए बनी समिति में संमवय का काम इनके ही पास था।
इस बार भी कहानी अलग नहीं है। वे प्रदेश भर का भ्रमण कर रहे हैं। वे जगह-जगह सभाएं कर रहे हैं। ये नुक्कड़ सभाओं की तरह है। वहां सिर्फ नकुल दुबे का भाषण नहीं होता, सवाल जवाब भी होता है। लोग उनसे पूछते हैं कि हम क्यों जुड़े? न जुड़ने के सैकड़ों कारण नकुल दुबे को बताते हैं।
पर वे विचलित नहीं होते। सबको ध्यान से सुनते हैं और जोड़ने की कोशिश करते हैं। उस कोशिश के केन्द्र में बसपा शासन काल का कामकाज होता है। उसमें कानून-व्यवस्था का बसपा दौर याद दिलाया जाता है। विकास कार्य के कसीदे पढ़े जाते हैं। दलित समाज के लिए हुए कामकाज का लेखाजोखा पेश किया जाता है।
अंत में उस सवाल पर बात होती है जिसे लेकर सूबे की सरकार हलकान है। वह है ब्राह्मण उत्पीड़न। इसे बतौर राजनेता नकुल दुबे जोर-शोर उठा भी रहे हैं। सरकार पर इस मसले को लेकर हमलावर भी है। घूम-घूम उत्पीड़न से लोगों को रूबरू करा रहे है। इस जागरण अभियान का दायरा उन्होंने ब्राह्मणों तक सीमित नहीं रखा है। वे संगठन से सर्वसमाज को जोड़ने में लगे हैं।