COVID19: फार्मा कंपनियों की कठपुतली डब्लूएचओ

जितेन्द्र चतुर्वेदी। ताइवान रोग नियंत्रण केन्द्र को ऑनलाइन सूत्रों से पता चला है कि चीन के वुहान शहर में सार्स जैसे कुछ मामले सामने आए है। बताया जा रहा है कि संक्रमण कोरोना वायरस से हुआ है।  संभावना जताई जा रही है कि यह इंसान से इंसान में फैलता है। चूंकि हम लोग सार्स महामारी के बाद से दुनिया भर में चल रहे संक्रमण पर अध्ययन करते रहते हैं। इस वजह से वुहान में फैले संक्रमण के बारे में सूचना मिली। यह जानकारी आपको (विश्व स्वास्थ्य संगठन) इसलिए भेज रहा हूं ताकि इस बीमारी से संबंधित सूचना और देशों को भी मिल सके। जिस तरह की अफवाह फैली है, उसे देखते हुए जरूरी है कि सदस्य देशों को आगाह किया जाए। नया साल भी आ रहा है। लोग टहलने-घूमने भी जाते हैं। जैसा डॉक्टर बता रहे हैं, उसके हिसाब से कोरोना पीड़ित व्यक्ति का इलाज आइसोलेशन में होता है। कहा जा रहा है यह संक्रामक भी है। हालांकि यह बात पुख्ता तौर पर नहीं कह सकते क्योंकि हमारे यहां इस तरह का कोई संक्रमण नहीं है। इस संदर्भ में चीन रोग नियंत्रण से जानकारी मांगी गई थी।……

यह उस पत्र का हिस्सा है जो 31दिसंबर 2019 को ताइवान ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) को लिखा था। इससे स्पष्ट है कि डब्लूएचओ को स्थिति से वाकिफ कराया गया था। ताइवान ने बीमारी से जुड़ी सभी संभावनाओं से डब्लूएचओ को अवगत कराया था। लेकिन एवज में संस्थान ने कुछ नहीं किया। वह कान में तेल डालकर बैठा रहा। इस बाबत उसने कोई छानबीन करने की भी कोशिश नहीं की। अगर बीमारी के बारे जांच पड़ताल हुई होती तो ताइवान को सूचना दी जाती। लेकिन ताइवान के मुताबिक उसने डब्लूएचओ से कोरोना बीमारी से जुड़ी तमाम जानकारी मुहैया कराने की गुजारिश की थी। पर वह चुप रहा। ताइवान की माने तो डब्लूएचओ की ओर से बीमारी के बारे में कोई संतोषजनक जवाब नहीं आया। कायदे से जवाब देना चाहिए था क्योंकि मामला विश्व समुदाय के स्वास्थ्य से जुड़ा था। ताइवान शंका जाहिर कर चुका था कि संभवत: यह बीमारी इंसान से इंसान में फैलती है। इस पहलू पर डब्लूएचओ को जांच करनी चाहिए था। समय भी नए साल का था। इसलिए भय भी अधिक था। पर, संस्थान ने ताइवान की तमाम चिंता को खारिज कर दिया। चीन रोग नियंत्रण केन्द्र ने भी ताइवान के साथ कोई जानकारी साझा नहीं की।
हालांकि ताइवान चुप नहीं बैठा। उसने विशेषज्ञयों की एक टीम चीन भेजी। उन लोगों ने नई बीमारी पर शोध किया। उसके जो परिणाम आए, वह चकित करने वाले थे। बीमारी बहुत संक्रामक थी और इंसान से इंसान में फैलने वाली थी। लेकिन यह बात डब्लूएचओ मानने के लिए तैयार नहीं था। वह तो फरवरी के अंत तक इसे संक्रामक बीमारी भी मानने के लिए तैयार नहीं था। मार्च में जाकर इसे महामारी माना।
तभी से डब्यूएचओ के रवैए को लेकर सवाल उठने लगा है। पहले तो उसने कोराना को माना ही नहीं है। जैसा कि ताइवान के पत्र से स्पष्ट है। दूसरा जब उसने कोरोना को गंभीरता से लिया तब कहा कि यह मानव से मानव में नहीं फैलता। जब तक डब्लूएचओ ने ताइवान के दावे को माना और कोरोना को महामारी घोषित किया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कोरोना कहर वैश्विक रूप ले चुका था। लाखों लोग उसकी चपेट में थे। तब कही जाकर डब्लूएचओ की आंख खुली थी।
इसके बाद भी वह चीन को आड़े हाथ लेने के लिए तैयार नहीं हुआ। कोरोना वहीं से पूरी दुनिया में फैला। वहां नवंबर में ही कोरोना से मुखातिब हो गया था। लेकिन फिर भी उसने इसे विश्व बिरादरी को नहीं बताया। डब्लूएचओ ने इसमें चीन की पूरी मदद की। लंबे समय तक बीमारी पर पर्दा डाले रहा। इसी वजह से चीन का अन्य देशों से संपर्क बना रहा। लोग चीन आते रहे और चीनी अन्य देशों में जाते रहे। इसी वजह से कोरोना का विश्वव्यापी प्रचार हुआ।
अगर डब्लूएचओ ने ध्यान दिया होता तो कोरोना चीन की सीमा से बाहर नहीं जाता। पर उसने चीन में फैली बीमारी की अनदेखी किया। ऐसा डब्लूएचओ ने क्यों किया? यह बड़ा सवाल है। एक तर्क तो यह दिया जा रहा है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन चीन के दबाव में आ गया था। दबाव का कारण चीन से मिलने वाला फंड है। दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि टेड्रोस अदनोम  डब्लूएचओ की बागडोर दोबारा चाहते हैं। उसके लिए उन्हें चीन के समर्थन की जरूरत पड़ेगी। यही वजह है कि वे चीन के साथ खड़े है।
लेकिन ये तर्क जमीन पर कही टिकते नहीं। कैसे? यह प्रश्न उठना स्वभाविक है। इसका जवाब जानने के लिए ज्यादा कुछ नहीं करना है। बस डब्लूएचओ की वार्षिक रिपोर्ट देखनी है। वह देखने से यथास्थिति काफी हद तक साफ हो जाएगी। वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक डब्लूएचओ को सबसे अधिक फंड अमेरिका से मिलता है। 2017-18 में अमेरिका ने 401 मिलियन डॉलर दिया था। इस लिहाज से देखा जाए तो चीन से मिलने वाले फंड, एक-तिहाई भी नहीं है। ऐसे में डब्लूएचओ अपने सबसे बड़े डोनर से झगड़ा क्यों करेगा? उसकी तो पूरी कोशिश रहेगी कि वह नाराज न हो। उसे नाराज करने का जोखिम डब्लूएचओ एक ही सूरत में उठा सकता है।
वह तब जब उसे अमेरिका से बड़ा डोनर मिल जाए। ऐसा करने वाला कोई देश नहीं बल्कि एक व्यक्ति है। बिल गेट्स उनका नाम है। माइक्रोसाफ्ट के वे मुखिया है और कहने के लिए दुनिया के सबसे बड़े दानदाताओं में शुमार है। बिल और मेंडेला फाउंडेशन, जीवीआई और जीएफएटीएम मिलकर डब्लूएचओ को 474 मिलियन डालर देते हैं। अकेले बिल गेट्स 324 मिलियन डॉलर का फंड करते हैं। इनका डब्लूएचओ के मुखिया टेड्रोस से पुराना रिश्ता भी है। एक दौर में टेड्रोस, बिल गेट्स के पैसे से बने ग्लोबल फंड फॉर एड्स, टयूबरकोलेसिस और मलेरिया बोर्ड के चेयरमैन थे। तभी से टेड्रोस अदनोम, गेट्स से जुड़े है। बिल गेट्स का फार्मा कंपनियों में बड़ा निवेश है। विशेष तौर पर वैक्सीन निर्माण में बिल गेट्स ने काफी पूंजी लगा रखी है। नोवार्टिस, फाइजर, ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन, सोनाफी, मर्क, बायर जैसी कंपनियों में बिल गेट्स का अच्छा खासा निवेश है। इसमें बिल और मेंडला फाउंडेशन अनुदान भी देते है। ऐसा वे क्यों करते हैं? उसकी एक अलग कहानी है। लेकिन इतना जरूर है जिस कंपनी में बिल गेट्स की हिस्सेदारी है, बिल और मंडेला फाउंडेशन उसे अनुदान भी देता है।
इनके काले कारोबार पर ‘द नेशन’ ने लंबी खबर लिखी है। उसमें बिल गेट्स के कारनामों की विस्तार से चर्चा की गई है। यहां पर उतने विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है। लेकिन उस हिस्से की चर्चा करना जरूरी है जो मौजूदा खेल पर रोशनी डालता है। रिपोर्ट के मुताबिक फार्मा सेक्टर, बिल गेट्स और डब्लूएचओ में घनिष्ठ संबंध है। दावा तो यह भी किया जाता है कि डब्लूएचओ इस समय फार्मा कंपनियों का एजेंडा चला रहा है। चूंकि उन कंपनियों के अगुवा बिल गेट्स हैं। उनकी ही वजह से डब्लूएचओ में फार्मा कंपनियां लाखों डॉलर का अनुदान देती है। इसलिए उनके हित का ध्यान रखना डब्लूएचओ का काम है। उसी के तहत कोरोना पर डब्लूएचओ ने पर्दा डाल रखा था। अगर वह ऐसा नहीं करता तो कोरोना वुहान शहर तक ही सीमित रह जाता। लेकिन डब्लूएचओ ने ऐसा होने नहीं दिया। पहले तो उसने बीमारी छिपाने में चीन का साथ दिया। जब बीमारी के बारे में सबको पता चल गया, तब डब्लूएचओ ने कहा कि यह बीमारी इंसान से इंसान में नहीं फैलती।
मतलब हर स्तर पर संगठन ने गोपनीयता बनाए रखी। जाहिर है वह चीन के लिए नहीं थी। अगर किसी के लिए थी और है तो वह फार्मा कंपनियां है। चीन तो बस बहाना है। उसकी इतनी हैसियत नहीं है कि वह डब्लूएचओ को प्रभावित कर सके और अमेरिका की इतनी हैसियत नहीं है कि वह बिल गेट्स को कठघरे में खड़ा कर सके। जबकि जो घटनाक्रम है वह सीधा संकेत करता है कि डब्लूएचओ, फार्मा कंपनियों के इशारे पर काम कर रहा था। उसने कोरोना पर लंबी चुप्पी इसलिए साधे रखी ताकि बीमारी पूरी दुनिया में फैल सके। अब पूरी दुनिया ही बिल गेट्स और उनकी सहयोगी के लिए बाजार बन गया। वे तो सीधे कह भी रहे है कि जब तक वे वैक्सीन नहीं बना लेते तब तक लोग बाहर नहीं निकल सकते। कारण, उनकी वैक्सीन ही कोरोना की दवा है। अन्य जो भी दवा कोरोना को ठीक करने में सक्षम नजर आती है, उसे डब्लूएचओ खारिज कर देता है। वह तो सीधे कह रहा है कि कोरोना खत्म होने वाली बीमारी नहीं है। वह दुनिया से जाएगी ही नहीं। यह एक तरह से डर फैलाना ही हुआ। फार्मा कंपनी का धंधा डर पर ही चलता है। जो जितना डरेगा, वह उतना जल्दी दवा के लिए भागेगा।
मौजूदा समय में वैसे ही हालात बनाए गए हैं। हर कोई डरा-सहमा है। वह चाहता है कि किसी तरह कोरोना से बचने के लिए दवा आ जाए। फ्रांस के वेज्ञानिकों ने इस दिशा में कोशिश भी की। दवा का परीक्षण किया और पाया की क्लोरोक्वीन, एंटीबायोटिक के साथ कोरोना को ठीक करने की सबसे कारगर दवा है। यह शोध सामने आते ही वैक्सीन निर्माता सकते में आ गए। उन्हें लगा कि यदि सब क्लोरोक्वीन से ठीक हो जाएंगे तो उनकी वैक्सीन का क्या होगा। लिहाजा वैक्सीन किंग के अगुवा यानी बिल गेट्स और उनके सहयोगी उसे खारिज करने में लगे हैं। कह रहे हैं कि क्लोरोक्वीन का प्रयोग करने से ह्दय की बीमारी हो जाती है। दूसरा यह, कोरोना का इलाज नहीं है। लेकिन बिडंबना देखिए, जिस दवा का वैक्सीन किंग विरोध कर रहे हैं, अमेरिकी राष्ट्रपति थोक के भाव वही दवा खरीद रहे हैं। दावा तो यहां तक किया जा रहा है कि मोडेना जो वैक्सीन बना रही है, उसमें भी क्लोरोक्वीन का प्रयोग किया गया है।
बावजूद इसके दुष्प्रचार जारी है। जाहिर यही वैक्सीन निर्माताओं की खुराक है। इसलिए तो पहले कोरोना के बारे में गलत सूचना फैलाई गई और बाद में वह वैश्विक महामारी बन गई। यही काम अब दवा के साथ हो रहा है ताकि वैक्सीन की बाजार बनी रहे। डब्लूएचओ इस समय उनके लिए ही काम कर रहा है। चीन तो बस मुखौटा है। असल खिलाड़ी तो बिल गेट्स है।

साभार-यथावत

News Reporter
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