राजनीति में इनदिनों माफी मांगने का प्रचलन बढ़ रहा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने इस प्रचलन को हवा दी है, वे माफी मांगने वाले शीर्ष पुरुष बन गये हैं। देशभर में खुद पर दर्ज तकरीबन चालीस से अधिक मानहानि के मुकदमों से निपटने के लिए उन्होंने माफी मांगने की शुरुआत की है। काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने महसूस किया कि या तो काम कर लें, या मुकदमे ही लड़ लें। पंजाब के अकाली नेता बिक्रम मजीठिया से माफी मांगने के साथ शुरू हुई उनकी यह प्रक्रिया अभी दिल्ली तक पहुंच गई है, जहां केजरीवाल ने केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी, केन्द्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल के पुत्र अमित सिब्बल सहित अनेक लोगों से माफी मांगी है। पंजाब चुनाव के दौरान उन्होंने बिक्रम मजीठिया को ड्रग्स का सप्लायर कहा था, जबकि नितिन गडकरी पर देश के सर्वाधिक भ्रष्ट नेताओं में से एक होने का आरोप लगाया था। वोडाफोन टैक्स मामले को अदालत से बाहर सुलझाने में कपिल सिब्बल के पुत्र अमित सिब्बल पर निजी लाभ के लिए शक्ति का दुरुपयोग करने का आरोप उन्होंने लगाया। माफी लेना और देना भारतीय संस्कृति की स्वस्थ परम्परा है, यह किसी को मिटाती नहीं, सुधरने का मौका देती है। लेकिन राजनीति में आज इस गरिमामय शब्द का दुरुपयोग हो रहा है।
माफी मांगने वाला अपनी कृत भूलों को स्वीकृति देता है। भविष्य में पुनः न दोहराने का संकल्प लेता है। यह उपक्रम व्यक्ति के अहं को झुकाकर उसे ऊंचा उठा देता है, आदर्श जीवन की ओर अग्रसर कर देता है। लेकिन राजनीतिक माफी में ऐसा नहीं होता। पहले दूसरों को बदनाम करने के लिए झूठे एवं बेबुनियाद आरोप लगाओ, खूब प्रचार पाओ और जब लाखों-करोड़ों के मानहानि के मुकदमे का सामना करना पड़े तो माफी मांग लो। यह सिलसिला इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि माफी सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि एक ऐसा भाव है, एक आदर्श की प्रस्तुति है, जो किसी व्यक्ति द्वारा की गई गलती का प्रायश्चित करने के अहसास से उभरता है। दिखावे के लिए या फिर अदालती मुसीबत से बचने के लिए माफी मांगना एक तरह से माफी शब्द की गरिमा को धुंधलाना है। इस तरह माफी मांगने से केजरीवाल का कद ऊंचा नहीं हुआ है बल्कि आम-जन के भरोसे के मोर्चे पर भारी नुकसान हुआ है। नैतिक रूप से इसका सकारात्मक पक्ष यह भी है कि भारतीय राजनीति में किसी ने माफी मांगने का साहस तो दिखाया है। वरना यहां तो हम आरोप के जवाब में आरोप लगाने की कुचालें ही चलते हुए देखते हैं।
आजकल केवल राजनीति में ही नहीं, बल्कि आम-जनजीवन में भी सॉरी शब्द का प्रचलन और प्रयोग न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में बहुत ज्यादा होने लगा है। आप किसी भी घटना, दुर्घटना के बाद इस शब्द को बोल कर बच कर निकल सकते हैं और सामने वाला पीड़ित व्यक्ति भी केवल इस छोटे से शब्द बोलने से ज्यादा प्रभावित हो जाता है। मगर आजकल इसका प्रयोग कुछ ज्यादा ही होने लगा है और इसके मायने भी बदल गए हैं। आज लोग किसी को जानबुझ कर मारपीट कर, हत्या कर, छेड़कर, प्रताड़ित कर, आरोपित कर, धक्का देकर, विवादित टिप्पणी कर या फिर ऐसे भी बहुत सारी घटनाओं को करने के बाद उससे बचने के लिए इस तरह के शब्द बोलते हैं और बचकर निकल जाते हैं। लेकिन क्या आपने कभी गौर किया है कि वह व्यक्ति जिसने उस घटना के बाद सॉरी बोला है, उसके बाद उसने उस तरह की घटनाओं से दूर हुआ है या ऐसी घटनाएं दुबारा नहीं दुहराता है? आपका जवाब होगा नहीं। तो फिर लोग इस तरह के शब्द क्यो बोलते हैं? क्या वह इसका मतलब नहीं जानते या इसका महत्व नहीं जानते, या फिर जानबूझ कर दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने के लिए ऐसा करते हैं।
सॉरी शब्द पूरे विश्व में बीसवीं सदी में प्रचलन में आया। इसकी शुरुआत ऑस्ट्रेलिया से 26 मई 1998 को उस समय हुई जब ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री जॉन हॉवर्ड अपनी संसद को संबोधित करने के दौरान एक सांसद के प्रश्नों के उत्तर दे रहे थे। तभी एक गलती की माफी मांगने के दौरान अचानक ही उनके मुख से सॉरी शब्द निकल पड़ा। इस तरह सॉरी शब्द की उत्पति हुई। यानी सॉरी शब्द राजनीति में अपनी गलतियों पर माफी मांगने के लिए प्रचलन में आया। जॉन हॉवर्ड ने सॉरी शब्द के मायने और अर्थ समझाते हुए कहा कि अनजाने में की गई कोई गलती के बाद जब उसका एहसास हो तो आप सॉरी बोलकर सभी से क्षमा मांग सकते हैं। आजकल की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में हर व्यक्ति जल्दी में रहता है और दूसरों से आगे निकलने का प्रयास करता रहा है। इस दौरान ना जाने उसने कितनों को कई बार धक्का दिया होगा। नुकसान पहुंचाया होगा। मगर हर बार वह उसे सॉरी बोलकर और अपनी गलतियों को नजरअंदाज कर आगे निकल जाता है। ऑस्ट्रेलिया में बढ़ रही ऐसी ही घटनाओं के बाद वहां की संसद ने वर्ष 2008 में 26 मई को राष्ट्रीय सॉरी दिवस मनाने की घोषणा कर दी। उस दिन लोगों की कोशिश यह रहती है कि सॉरी शब्द का प्रयोग कम से कम या ना के बराबर करें। लेकिन हमारे राजनेता कब इतने परिपक्व होंगे कि उन्हें साॅरी न कहना पड़े। राजनीतिक लोगों के भीतर इतना अनुशासन होना ही चाहिए कि किसी पर अनर्गल आरोप न लगाएं, लेकिन बाद में अपनी गलती का एहसास हो जाए तो मामले को खींचने और मुकदमेबाजी में देश का पैसा बर्बाद करते जाने से अच्छा है कि वे माफी मांगकर मामला रफा-दफा करें।
आज जब आरोप लगाकर फिर माफी मांग लेने के मामले सामने आ रहे हैं तब यह याद आता है कि अपने देश में तमाम ऐसे लोग भी हुए हैं जिन्होंने शीश कटवा दिए, लेकिन अपनी बात से डिगे नहीं। आज स्थिति यह है कि महत्वपूर्ण पदों एवं राजनीति के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति यह साबित कर रहे हैं कि उनकी बातों का कोई मूल्य-महत्व नहीं और वे दूसरों पर कीचड़ उछालने और फिर माफी मांगकर भाग जाने में माहिर हैं। आखिर हमारे नेता भावी पीढ़ी को क्या संस्कार दे रहे हैं? पहले बच्चों या फिर भगवान की कसम खाने वालों पर लोग भरोसा करते थे, लेकिन अब भला कसमें खाने वालों पर कौन भरोसा करेगा? माफी को इतना हल्का बना दिया गया है कि अब माफी मांगना एक मजाक सा हो गया है। हमें माफी का वास्तविक हार्द उद्घाटित करना होगा। क्योंकि उस परिवेश और परिस्थिति में माफी का उदाहरण कभी नहीं विकसित हो सकता जहां स्वार्थों एवं संकीर्णता की दीवारें समझ से भी ज्यादा ऊंची उठ जाएं। विश्वास संदेहों के घेरे में घुटकर रह जाए। समन्वय और समझौते के बीच अहं आकर खड़ा हो जाए, क्योंकि अहं की उपस्थिति में आग्रह की पकड़ ढीली नहीं होती और बिना आग्रह टूटे माफी तक पहुंचा नहीं जा सकता। बात राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप से उपजे मुकदमों की नहीं है, बात कानून की भी नहीं है, यहां बात भारतीय संस्कृति के मूल्यों की है। राजनीति में माफी के बढ़ते प्रचलन से राजनीति आदर्शों एवं मूल्यों में कोई फर्क पडे़गा या नहीं, लेकिन दुनिया में भारतीय संस्कृति और उसके उच्च मूल्य मानकों का सम्मान जरूर होगा। हमें एक सन्देश जरूर मिलेगा कि यदि हमारे व्यवहार से औरों को कुछ कष्ट होता है तो उसके लिए विनम्रतापूर्वक माफी मांग लेनी चाहिए। यदि हम दूसरों को माफ नहीं कर सकते तो परमात्मा कैसे हमारी अनंत भूलों, पापों को माफ करेगा। यह मान के चलिये कि मनुष्य गलतियों का पुतला है। फिर भी दूसरों की त्रुटियां क्षम्य है, लेकिन अपनी स्वयं की गलती के लिए प्रायश्चित करना चाहिए। अपने सभी कर्मों को भगवान को समर्पित कर अपनी गलती के लिए सदैव सजग व जागरूक रहना चाहिए। यही गुणों को जीवन में विकसित करने का रास्ता है। गौतम बुद्ध ने प्रेरक कहा है कि पुष्प की सुगंध वायु के विपरीत कभी नहीं जाती लेकिन मानव के सद्गुण की महक सब ओर फैलती है। ईसा ने अपने हत्यारों के लिए भी प्रभु से प्रार्थना की कि प्रभु इन्हें क्षमा करना, इन्हें नहीं पता कि ये क्या कर रहे हैं। ऐसा कर उन्होंने परार्थ-चेतना यानी परोपकार का संदेश दिया। इन आदर्श एवं प्रेरक उदाहरणों से वातावरण को सुवासित करना- वर्तमान की बड़ी जरूरत है, इसी से कानून के मन्दिरों पर बढ़ते बोझ को कुछ कम किया जा सकता है और इसी से राजनीति में शुद्धि का वातावरण भी बन सकेगा।
-ललित गर्ग