
आकाश रंजन : शिप ऑफ थीसस एक बेहद ही करिश्माई और रोचक फ़िल्म है। सोचने पर मजबूर करने वाला,भावुक और बौद्धिक रूप से आगे बढ़ने वाला यह फ़िल्म आपको कमाल का सिनेमाई अनुभव कराता है। जो लोग मूवी में एक जादू का अनुभव करना चाहते है उन लोगों को शिप ऑफ थीसस निराश नहीं करेगी।
फिल्म शिप ऑफ थीसस भारत में बनने वाली शायद सबसे प्रभावशाली फिल्मो में से एक है। जिस पर भारतीय सिनेमा को गर्व हो सकता है। इस फिल्म के लेखक-निर्देशक आनंद गांधी है। यह इनकी पहली फिल्म है। इस फिल्म को देख के यक़ीन ही नहीं होता कि यह वही आनंद गाँधी है जो एक दशक पहले चर्चित धारावाहिक क्योंकि सास भी कभी बहू थी और कहानी घर घर की के संवाद लिखा करते थे।
फिल्म शुरू होती है एक प्रशन से – एक जहाज को मरम्मत की ज़रुरत है, इसके एक हिस्से को बदलना है। बदलते बदलते एक ऐसा वक़्त आया जब मूल जहाज का एक भी हिस्सा अब इसमें नहीं रहा। क्या यह अब भी वही जहाज है? यदि सभी बदले गए हिस्सों का उपयोग किसी दूसरे जहाज के निर्माण के लिए किया जाये, तो दोनों में से कौन सा असली जहाज माना जयेगा ?
बस इसी सवाल के इर्द गिर्द यह फिल्म आगे बढ़ती है। इसका जवाब जानने और समझने के लिए आपको यह फिल्म देखनी पड़ेगी।
आनंद गांधी की फिल्म तीन कहानियों से संलिप्त है। जो जीवन के तीन सूत्र, विचारधारा, आध्यात्मिकता और विचार के उन यात्राओं में आपको ले जयेगी जहा आपको अपने अस्तित्व पर और इंसान के द्वारा बनाई गयी सत्य और असत्य पर मंथन करने को मजबूर कर देगी। इसके साथ ही यह फिल्म हमें अपने और दूसरों के जीवन को महत्व देना सिखाती है। जीवन और मृत्यु के शंघर्ष की तरह ही नैतिकता और न्याय के हमेशा दो पहलू होते हैं। गांधी अपनी फिल्म में इन सभी विषयों के बारे में बात करते हैं।
पहला किरदार एक महिला फोटोग्राफर का है जो देख नहीं सकती। फिर भी वह कमाल की मास्टरपीस तस्वीरें अपने कैमरे से निकालती है। दूसरा किरदार एक साधु का है जिसका वैचारिक विश्वास अहिंसा और पशु अधिकारों के लिए लड़ना है। साधु दुनिया के कथित मोह माये से इत्तेफाक नहीं रखते। तीसरा और आखिरी किरदार एक युवा स्टॉकब्रोकर का है जिसके लिए जीवन में पैसा ही सब कुछ मायने रखता है। पुरे फिल्म में इन तीनो किरदार अपने विश्वास की कड़ी परीक्षा का सामना करते और जूझते नज़र आते है। आनंद गांधी हमें इन किरदारों को हमारे दिमाग में उनकी दुनिया को गहराई से बसाते हैं। वे हमें उस यात्रा का हिस्सा बनाते हैं जो इन किरदारों को तय करना होता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन यात्राओं का कोई निश्चित अंत नहीं है आप बस किरदारों के साथ इतने लंबे समय तक जीते हैं और इनके अनुभवों से अपने खुद के विशवास पर चोट करने पर मजबूर होते है।
जो चीज इस फिल्म को सबसे ज्यादा मदद करती है वह है इसकी कास्टिंग। लीड रोल के एक्टर्स ने अपना बेस्ट तो दिया ही है लेकिन बाकी एक्टर्स ने भी फ़िल्म में जान डालने का काम किया है। हालांकि वे भारतीय सिनेमा में काफी हद तक अनजान चेहरे हैं लेकिन इनकी एक्टिंग देख के मंझे हुए कलाकार साबित होते है। ऐडा अल-काशेफ, नीरज काबी और सोहम शाह पहले बताए गए तीन मुख्य किरदार निभाते हैं। अपने एक इंटरव्यू में नीरज काबी ने बतया कि वह अपने इस किरदार के लिए 6 महीने तक तक सिर्फ दाल पी कर रहा करते थे। हर महीने 4 से 5 किलो वजन कम किया करते थे। कुल 17 किलो वजन किया जो कहानी की डिमांड थी।
फिल्म की खास बात उसकी सिनेमेटोग्राफी भी है, जिसके लिए इस फिल्म को फिल्म महोत्सव में काफी अवार्ड्स भी मिल चुका है।
अब बात करते है फिल्म की खामियों की
वैसे तो फिल्म इतनी उम्दा है कि इसमें खामियां निकालना बेहद ही कठिन है फिर भी बारीकी से देखे तो कुछ सीन्स ज़बरजस्ती के लगते है। निर्देशक चाहते तो इसमें आराम से कुछ सीन्स की छटनी कर सकते थे। जिससे फिल्म थोड़ी लम्बी न बनती। इसके अलावा फिल्म देखने लायक है।
फिल्म का अंत बेहद ही रोचक और आश्चर्यजनक है। अंत में एक बड़ा खुलासा भी होता है। लेकिन सबसे उपयुक्त तरीके से किरदारों और किस्सों को एक साथ एक हिस्से में लाना निर्देशक की महानता को दर्शाता है। कुछ पल ऐसे होते हैं जिनसे आप जुड़ाव महसूस करते हैं। जब आप फिल्म देखना समाप्त कर लेते हैं, तो आप जानते हैं कि कोई और अंत नहीं हो सकता था।
यह फ़िल्म 2013 में रिलीज़ हुई थी वैसे आप ऑनलइन स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स जैसे यूट्यूब पर देख सकते है।