लखनऊ। सियासत में जनता के बीच नेता, नेतृत्व और पार्टी की छवि बहुत मायने रखती हैं. छवि की बदौलत ही नेता चुनाव जीत पाते हैं और छवि बिगड़ जाए तो जनता एक झटके में बड़े से बड़े नेता को जमीन पर ला देती है. समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया अखिलेश यादव लगातार चार चुनाव हारने के बाद भी राजनीति के इस सत्य को अभी तक समझ नहीं पाए हैं. इसलिए वह अपने बलबूते पर चुनावी संघर्ष करने के बजाए गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतरते हैं. जनाधार विहीन संजय लाठर जैसे अपने दोस्त को विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष बनाने का फैसला लेते हैं. अखिलेश के इस फैसले के चलते अब संजय लाठर सबसे कम दिन सदन में नेता प्रतिपक्ष रहने वाले सदस्य होंगे. वही दूसरी तरफ सपा मुखिया अखिलेश यादव के इस फैसले को लेकर उनका मजाक बनाया जा रहा है.
संजय लाठर विधान परिषद में 23वें नेता प्रतिपक्ष हैं. गत फरवरी में जब नेता प्रतिपक्ष अहमद हसन की मृत्यु हो गई थी. उसके बाद अखिलेश यादव ने यह जानते हुए कि संजय लाठर का कार्यकाल 26 मई को खत्म होने को हैं फिर भी उन्होंने 28 मार्च को संजय लाठर को विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष बना दिया. अब 23 मई से विधानमंडल सत्र शुरू हो रहा है. और उसके साथ ही 26 मई को संजय लाठर सहित राजपाल यादव और अरविंद कुमार सिंह का कार्यकाल भी खत्म हो रहा है. ऐसे में अब अखिलेश यादव द्वारा संजय लाठर को विधान परिषद का नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के फैसले पर सवाल उठाए जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि आजादी के बाद से अब तक सबसे ज्यादा पांच बार नेता प्रतिपक्ष के पद पर सपा काबिज रही है फिर संजय लाठर को नेता प्रतिपक्ष बनाने का फैसला अखिलेश ने क्यों लिया. जबकि विधान परिषद में राजेंद्र चौधरी और सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम जैसे सीनियर नेता थे. इन नेताओं की जगह अखिलेश यादव को अपने दोस्त संजय लाठर में क्या खूबियां दिखी जो उन्हें चंद दिनों के लिए विधान परिषद का नेता प्रतिपक्ष बनाने का फैसला कर लिया. क्या अखिलेश के इस फैसले से पार्टी संगठन को लाभ हुआ?
पार्टी नेताओं और राजनीतिक विश्लेषकों के इन सवालों का जवाब नहीं हैं. वरिष्ठ पत्रकार गिरीश पांडेय कहते हैं कि विधानसभा चुनाव हारने के बाद भी सपा मुखिया अखिलेश यादव का ध्यान पार्टी संगठन को मजबूत करने की तरफ नहीं है. अभी भी अखिलेश यादव अपने जनाधार विहीन मित्रों के इर्द गिर्द ही घिरे हुए सियासी फैसले ले रहे हैं. जिसके चलते ही उन्होंने संजय लाठर को जो जिम्मेदारी दी उसके कारण उनके फैसले पर अब हमेशा ही सवाल उठेगा. कहा जाएगा कि अखिलेश यादव ने ऐसे व्यक्ति को नेता प्रतिपक्ष बनाया जो आजादी के बाद सबसे कम दिन सदन नेता प्रतिपक्ष रहने वाला सदस्य बना. अब अखिलेश का यह फैसला उनकी राजनीतिक समझ पर हमेशा ही सवाल खड़ा करेगा और उसका कोई माकूल जवाब वह नहीं दे पायंगे.