जितेन्द्र चतुर्वेदी। सर्वजन के शिल्पकार सतीश चंद्र मिश्र इन दिनों मैराथन बैठकों में मशगूल हैं। उनकी मसरूफियत को देखकर 2006-07 का वह दौर याद आ रहा है, जब सर्व समाज को जोड़ने के लिए वे हजारों किमी पैदल चले थे। इस बार भी उसी मोड में नजर आ रहे हैं। 6 विडंसर प्लेस पर जिस तरह की हलचल आजकल है, उसे देखकर तो यही लगता है। वहां पर रोजाना किसी न किसी समाज का जुटान हो रहा है। हर कोई पार्टी की शोभा बनना चाहता है। ब्राह्मण और दलित के लिए तो यह दल घर जैसा है। इस वजह से उनकी मौजूदगी विडंसर प्लेस पर सहज ही बनी रहती है। हालांकि अब यही बात मुस्लिम समाज पर भी लागू हो रही है। वे भी वहां खूब नजर आ रहे हैं। तेजी से यह समुदाय बसपा के जुड़ रहा है।
16 नवंबर की बात है। कोई 5000 मुसलमान बसपा में शामिल हुए। सतीश चंद्र मिश्र इसके अगुवा थे। पूछने पर पता चला कि सबको जोड़ने का जिम्मा उन्हीं के पास है। सर्वजन का मर्म भी यही है। उसके प्रणेता भी वही है। 2007 में इसको मूर्त रूप इन्होंने ही दिया था। इस बार भी साकार रूप इनको ही देना है। वे जुटे भी उसी में है।
बहन जी को पांचवी बार मुख्यमंत्री बनाने का मानो, उन्होंने संकल्प कर लिया हो। पिछले छह महीनों में जिस तरह का तूफानी कार्यक्रम उनकी अगुवाई में हुआ है, उससे तो यही प्रतीत होता है। सूबे भर में जगह-जगह सम्मेलन हुए। उनमें सर्वजन का नारा दोहराया गया। मुलसमानों को लेकर, विशेष तरह का अभियान चलाया जा रहा है। असल में उन्हें अन्य दल के लोग बरगाला रहे हैं। उनको पता है कि यदि दलित और मुस्लिम गठजोड़ हो गया तो बसपा का वोट प्रतिशत स्वतः 40 फीसदी हो जाएगा। उसपर ब्राह्मण समाज और पिछड़े समाज को जोड़ लिया जाए तो यह आंकड़ा 70 के पार चला जाएगा।
इस वजह से सियासी लोग घबराए है और बसपा के बारे दुष्प्रचार कर रहे हैं। मुस्लिम समाज को भड़का रहे हैं। बसपा के चाणक्य उन्हें समझाने और पार्टी के साथ जोड़ने की मुहिम में लगे है। उनको बताया जा रहा है कि बसपा उनकी पार्टी है। उस इतिहास से रूबरू कराया जा रहा जो बाबा साहेब के समय से शुरू हुआ था। तभी मुस्लिम-दलित एकता का सूत्रपात हुआ था। बाबा साहब उसके अगुवा बने थे। संविधान सभा में वे मुस्लिम सहयोग के कारण ही पहुंचे थे। नही तो कांग्रेस ने सारे दरवाज बंद ही कर दिए थे। खोला इस समुदाय ने। उसे कांशीराम ने आगे बढ़ाया।
बामसेफ में ‘म’ मुस्लिम समुदाय का ही प्रतीक है। कांशीराम ने दलित, पिछड़ा और मुस्लिम के संकुल को राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए गढ़ा था। इनका हक संख्याबल में कम रहते हुए भी अन्य तबकों ने छीन लिया था। उनका हक उन्हें दिलाने के लिए कांशीराम ने एक आंदोलन खड़ा किया। बसपा उसी आंदोलन का नाम है। वह शोषित और पीड़ित के लिए आवाज उठाने वाला संगठन है।
इस वजह से मुसलमान का भी पार्टी पर अधिकार है। वे इसे मानते भी हैं। इसी कारण पार्टी के साथ खड़े भी रहे हैं। उन्हें ऐसा करना भी चाहिए। वह इसलिए क्योंकि बसपा में ही उनका भविष्य सुरक्षित है। बाकी जगह तो उन्हें पीड़ा ही मिली है। 2012-2017 का शासन इस बात का गवाह है। उस दौर में यूपी दंगा प्रदेश बन गया था। मुज्जफरनगर दंगा सपा शासन के दौर का सबसे भयावह दंगा था। इस दंगे में सरकार दंगाईयों की पैरोकार बन गई थी। उनके साथ नरमी दिखा रही थी। जो पीड़ित थे, वे शोषण के लिए मजबूर थे। न उनको न्याय देने की व्यवस्था की गई और न उनके पुनर्वास की कोई मुक्कमल तैयारी की गई। उन्हें, उनके हाल पर थोड़ दिया गया।
समाजिक कार्यकर्ता और पूर्व नौकरशाह हर्ष मंदर ने तो अपनी किताब ‘पार्टिशन हार्टस’ में इस दंगे पर विस्तार से लिखा है। तथाकथित सेकुलर सपा सरकार को आड़े हाथ भी लिया। उनकी माने तो मुजफ्फरनगर की हिंसा को झूठ की चासनी में डूबा कर हिन्दुत्ववादी संगठनों ने हवा दी। जिसे तत्कालीन सरकार की आपराधिक निष्क्रियता ने बढ़ने दिया। हिंसा को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। वे आगे कहते हैं कि राज्य सरकार ने दंगे के बाद लोगों को सुरक्षित अपने गाँव वापस लौटने और फिर से नई जिंदगी शुरू करने में किसी तरह की मदद नहीं की। मुसलमानों को अलग थलग बसने के लिए मजबूर किया गया, उनका सामाजिक बहिष्कार हुआ।
इसके विपरीत यदि बसपा के दौर की बात करें तो दंगे का कही नामोनिशान नहीं था। अल्पसंख्यक समुदाय खुद को सुरक्षित महसूस करता था। भय का माहौल नहीं था। भाजपा के साथ गठबंधन होने पर भी बसपा सरकार ने मुस्लिम समुदाय के हितों पर आंच नहीं आने दी। इन बातों को मुस्लिम समुदाय तक पहुंचाने की कोशिश में बसपा महासचिव लगे हैं। वे काफी हद तक सफल भी होते दिख रहे हैं।