तृप्ति रावत/ सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को समलैंगिक संबंधो को अपराध ठहराने वाली आईपीसी की धारा 377 पर पहले दिन की सुनवाई खत्म हो चुकी है। पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ आईपीसी की धारा-377 को ख़त्म करने के लिए कई याचिकाओं पर एक साथ सुनवाई कर रही है। समलैंगिकों को आम बोलचाल की भाषा में एलजीबीटी यानी लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर कहते हैं। वहीं कई और दूसरे वर्गों को जोड़कर इसे क्वियर समुदाय का नाम दिया गया है।
QUEER यानी अजीब या विचित्र, लेकिन क्या अजीब या विचित्र होने की वजह से उसे अपराध मान लिया जाए। धारा 377 के खिलाफ पूरी बहस इसी पर टिकी है। यह धारा अप्राकृतिक यौन संबंध को गैरकानूनी ठहराता है। वहीं एलजीबीटी समुदाय का कहना है कि समलैंगिक संबंध कहीं से भी अप्राकृतिक नहीं हैं। यह कई जानवरों की तरह इंसानों में भी एक आम स्वभाव है। धारा-377 इस देश में अंग्रेजों ने 1862 में लागू किया था। इस कानून के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध को गैरकानूनी ठहराया गया है।
इसी के तहत आईआईटी के 20 छात्रों ने नाज़ फाउंडेशन के साथ मिलकर याचिका डाली थी। इसके अलावा अलग-अलग लोगों ने भी समलैंगिक संबंधों को लेकर अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था। जिसमें ललित ग्रुप के केशव सूरी भी शामिल हैं। अब तक सुप्रीम कोर्ट को धारा-377 के ख़िलाफ़ 30 से ज़्यादा याचिकाएँ मिली हैं।
याचिका दायर करने वालों में सबसे पुराना नाम नाज़ फाउंडेशन का है जिसने 2001 में भी धारा-377 को आपराधिक श्रेणी से हटाए जाने की मांग की थी। सोमवार को इन याचिकाओं पर सुनवाई का पहला दिन रहा। हालांकि इस मामले में रिव्यू पिटिशन पहले ही खारिज कर चुकी है और इसके बाद क्यूरेटिव पिटिशन दाख़िल की गई है।
समलैंगिक संबंधों को लेकर नियम
भारत में समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखा गया है और इसे आपराधिक श्रेणी से हटाए जाने के लिए ही ये सुनवाई हो रही है। हालांकि इस मामले में कई पेंच हैं। निजता के अधिकार पर एक सुनवाई करते हुए साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “सेक्सुअल ओरिएंटेशन/ यौन व्यवहार सीधे तौर पर निजता के अधिकार से जुड़ा है। यौन व्यवहार के आधार पर भेदभाव करना व्यक्ति विशेष की गरिमा को ठेस पहुंचाना है। “साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे प्राकृतिक व्यवहार के विरूद्ध बताया और इसे अपराध ठहराया।