अभिषेक उपाध्याय कांग्रेस इतिहास के सबसे बुरे दौर का सामना कर रही है। उसके भीतर से असंतोष की ध्वनि और भी तेज होती जा रही है। असंतोष के केंद्र में खुद सोनिया और राहुल गांधी हैं। असंतोष भीतर से उठा है जो लगातार गहराता जा रहा है। कांग्रेस आलाकमान इस चुनौती से बुरी तरह जूझ रहा है। कांग्रेस के जिन 23 वरिष्ठ नेताओं ने नेतृत्व पर सवाल उठाते हुए संगठन में आमूल-चूल बदलावों की मांग करते हुए अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी है, उनको आज तक कोई आधिकारिक जवाब नही मिला है। बिहार चुनाव ने हालात और भी दुश्वार कर दिए हैं। कभी कश्मीर से कन्याकुमारी तक राष्ट्रीय पार्टी रही कांग्रेस अब दिनो दिन सिमटती जा रही है। कई राज्यों में वह बुरी तरह हाशिए पर जा चुकी है। खासकर यूपी बिहार जैसे उसका गढ़ रहे राज्यों में। राहुल गांधी को जिस तरह से राष्ट्रीय जनता दल ने घेरा है, उसने पार्टी की जमकर किरकिरी करा दी है। राजद नेता शिवानंद तिवारी ने यहां तक कह दिया कि राहुल प्रचार छोड़कर पिकनिक मना रहे थे। कांग्रेस एक बार फिर से लाइबिलिटी बनकर उभरी है। यूपी चुनावों में अखिलेश से 105 सीटें झटक लेने के बाद वहां सपा के आगे लाइबिलिटी बन गई थी। इसी तर्ज पर अब बिहार में राजद के आगे कांग्रेस बोझ बनकर उभरी है। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि बिहार में महागठबंधन के हाशिए से सत्ता में आने से फिसल जाने का पूरा ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ा जा रहा है।
कांग्रेस के भीतर असंतोष पहले भी हुए हैं। इंदिरा जी के जमाने में दो फाड़ हुए थे। मगर वो इंदिरा गांधी थीं। कांग्रेस के पास आज की तारीख में ऐसा एक भी चमत्कारिक व्यक्तित्व नही है जो पार्टी की नैया पार लगा सके। ऐसे में गांधी परिवार के खिलाफ गुपचुप उठती रही आवाजें अब मुखर हो चली हैं। कांग्रेस को बचाने के नाम पर नया आंदोलन खड़ा हो रहा है। बड़ी बात यह भी है कि यह आंदोलन खुद कांग्रेस के भीतर से शुरू हो रहा है। अब तक 10 जनपथ के सिपहसालार रहे कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी नेता खुलकर बगावत की राह पर हैं। उनकी असहमति आलाकमान के रूख और अनिर्णय की स्थितियों से है। असहमति का एक बड़ा आधार सुनवाई का न होना है। कांग्रेस सिर्फ एक परिवार की पार्टी बनकर रह गई है। परिवार में भी राजनीति को लेकर कोई विशेष झुकाव दिखाई नही देता। राहुल गांधी के काम करने का तरीका काफी हद तक पार्ट टाइम पालिटीशियन का है। इस तरीके से खुद कांग्रेस के भीतर खासा असंतोष है। जिन 23 नेताओं ने इससे पहले कांग्रेस आलाकमान के खिलाफ आवाज बुलंद की थी, वे अब निर्णायक कार्यवाही की ओर हैं। वे इस बात का साफ संकेत भी दे रहे हैं।
हालांकि आलाकमान के पक्ष में भी वफादारों ने मुहिम शुरू कर दी है। ये वफादार उन नेताओं को टारगेट कर रहे हैं जिन्होंने गांधी परिवार के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोल दिया है। कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम, विवेक तनखा जैसे नेताओं ने पार्टी की हालत पर चिंता जताते हुए जो बातें कहीं, उनका खंडन भी आ गया। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सबसे पहले सामने आए। उन्होंने कपिल सिब्बल को आड़े हाथों लेते हुए दस जनपथ के प्रति अपनी वफादारी साबित करने की पुरजोर कोशिश कर डाली। मगर इसने आग में और भी घी का काम किया। दस जनपथ के वफादार नेताओं के इन हमलों ने असंतुष्ट खेमे के संकल्प को और मजबूत ही किया है। अब उनकी पूरी कोशिश कांग्रेस के भीतर आमूलचूल परिवर्तन लाने की कवायद शुरू करने से है, जिसमें वे काफी हद तक कामयाब भी होते दिखाई दे रहे हैं।
कांग्रेस अब डैमेज कंट्रोल की कवायद में जुटी हुई है। सोनिया गांधी कुछ नई समितियां बनाईं जिसमें चिट्ठी लिखकर असहमति जताने वाले कुछ नेताओं को भी जगह दी गई है। इन नेताओं में गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, शशि थरूर, वीरप्पा मोइली शामिल हैं। इस कवायद का आशय इन दो तरीके से समझा जा सकता है। पहला असंतोष को आगे बढ़ने से रोकना और दूसरा असंतुष्ट धड़े में दो फाड़ कराने की कोशिश। कांग्रेस आलाकमान की एक बड़ी समस्या सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल की बीमारी भी है। अहमद पटेल की तबीयत खासी नासाज है। उनके रहते हुए कांग्रेस के पास असंतोष को हैंडल करने के कई रास्ते थे। कांग्रेस के असंतुष्ट धड़े की सबसे अधिक नाराजगी आलाकमान को लेकर है। आलाकमान अब तक कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष तय नही कर सका है। राहुल गांधी ने लोकसभा चुनावों में हार के बाद इस पद से इस्तीफा दे दिया था। उसके बाद ये कुर्सी अस्थायी तौर पर सोनिया गांधी के पास चली गई थी।
समस्या यह भी है कि राहुल गांधी बिना पद पर हुए ही कांग्रेस को चलाने की कोशिश कर रहे हैं। ये उस सिद्धांत पर है जिसमें बिना किसी उत्तरदायित्व के सत्ता का आनंद लिया जाता है। इसमें कोई जिम्मेदारी भी नही बंधती है। पार्टी के अंदरूनी संकट पहले से ही मुंह बाए खड़े हैं। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच की रार अभी थमी नही है। कांग्रेस अभी तक वहां कोई समझौता नही करा सकी है। सचिन पायलट की वापसी को लेकर जो वायदे किए गए थे, वे सब अधूरे पड़े हैं। राजस्थान में कभी भी विद्रोह फिर से सुलग सकता है। इस बीच उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस के लिए हालात ठीक नही हैं। वहां से भी असंतोष के संकेत मिल रहे हैं। हाल में ही हुए उपचुनावों में कांग्रेस कभी भी लड़ाई में नही दिखाई दी। इससे यूपी के भीतर प्रियंका गांधी की अपील और जमीन दोनो का अंदाजा हो गया।
कांग्रेस में विद्रोह की निर्णायक स्थितियों में जाने की संभावनाओं के पीछे एक बड़ी वजह जनता के साथ तारतम्या बिठा पाने की कमी और आइडियोलॉजिकल मुद्दों पर कांग्रेस के भीतर का भ्रम और भटकाव भी है। एक समय कांग्रेस का गढ़ माना जाने वाला राज्य पश्चिम बंगाल कांग्रेस के लिए अछूत बन चुका है। वहां कांग्रेस लेफ्ट की बांह पकड़ने के लिए बेकरार है। बंगाल में पूरी लड़ाई ममता बनर्जी और नरेंद्र मोदी के बीच सिमट गई है। 370 और अयोध्या जैसे मुद्दों पर कांग्रेस का वैचारिक बिखराव और भी खुलकर सामने आ गया। गुपकार एलायंस के बहाने उसका आइडियोलाजिकल भ्रम और भी खुलकर सामने आ गया। इन हालातों में कांग्रेस के भीतर बगावत की चिंगारी आग बनती जा रही है।